बुधवार, 26 जनवरी 2011

कविता


अपनी बात

हिंदी विश्व के रचनाकार - पाठक मित्रो, 'सुरेश यादव सृजन' की पहली पोस्ट का प्रकाशन पिछले वर्ष गणतंत्र दिवस को किया गया था. आज इसे एक वर्ष पूरा हो रहा है. कुल तेरह पोस्ट और सत्ताईस कवितायेँ… बस. आज के इस तीव्रगामी युग में ऐसी धीमी चाल ! उभरने की कोशिश करूँगा परन्तु तीव्रगामी होने की संभावना बहुत कम है.
सुश्री एवं सर्वश्री दिनेश राय द्विवेदी, महावीर शर्मा(स्व.), सुभाष नीरव, रामेश्वर कम्बोज हिमांशु, हरि सुमन बिष्ट, प्राण शर्मा, रूप सिंह चंदेल, बलराम अग्रवाल, सुभाष राय, अविनाश वाचस्पति, इला प्रसाद, कविता वाचकनवी, संगीता स्वरुप, जगदीश व्योम, सुशील कुमार, अशोक गुप्ता, अशोक आंद्रे, आर वेणुकुमार, के.के यादव, हरकीरत हीर, अलका सिन्हा, राम शिवमूर्ति यादव, जितेन्द्र जौहर, भावना, रश्मि प्रभा, संगीता पुरी, रमेश कपूर, संजय ग्रोवर, उमेश महादोषी, अंजना बक्सी, नरेन्द्र व्यास, अंकित माथुर, रोशनी, विनोद कुमार पाण्डेय, विधु, रंजना, अनुज कुमार, राजेश उत्साही, राजू मिश्र, निर्मला कपिला, मंजू गुप्ता, रानी विशाल, सुनील गज्जाणी, देवमणि पाण्डेय, अमरेन्द्र, क्रांतिवर्धन, देवी नागरानी, मोनिका शर्मा, कुलवंत हैप्पी, आकांक्षा, अरुण चन्द्र राय, छवि, अशोक बजाज, राजेन्द्र स्वर्णकार और मिथलेश दुबे आदि ने गहराई तक जाकर काव्य संवेदनाओं को अर्थ-व्याप्ति दी है और आप सभी की टिप्पणियाँ कविता के गहन सन्दर्भों को खोजने की सार्थक पहल के रूप में मेरे लिए रोशनी का काम कर सकी हैं. आभारी हूँ.
पाठकीय प्रतिक्रिया के रूप में सहज अनुभूति-परक प्रतिक्रियाओं ने उत्साह दिया जिसके लिए मैं सुश्री एवं श्री प्रदीप मिश्र, परम जीत सिंह बाली, मृदुला प्रधान, शरद कोकस, सुधीर, अक्षिता[पाखी], रचना दीक्षित, संजय भाष्कर, रचना सागर, उदय, अभिलाषा, शेखर कुमावत, अविनाश गौतम, समीर लाल, क्षमा, सतीश सक्सेना, रमेश कुमार सिंह, शिरीष मौर्य, सुनीता गोदारा, अभिषेक प्रसाद अवि, मुरारी पारीक, कवि कुलवंत, श्याम कोरी उदय, राम जी यादव, अमित कुमार, वेदिका, वंदना, शेफाली पाण्डेय एवं मंजू गुप्ता का आभारी हूँ.
गणतंत्र दिवस की 62वीं वर्षगांठ पर कामना करता हूँ कि सभी देशवासी मतभेदों को भुलाकर राष्ट्रीय एकता, अखंडता और समृद्धि के लिए काम करें. हिंदी भाषा और साहित्य रचनात्मक गौरव शिखर प्राप्त करे. इस कामना का आधार है रचनात्मक अनुभूतिओं की सामाजिक और राष्ट्रीय सरोकारों के बीच पैठ की जीवन्तता. ब्लाग के माध्यम से इधर जो साहित्य सामने आया है और ब्लॉगों की सक्रियता जिस तरह बढ़ी है उससे हिन्दी और हिन्दी साहित्य को विश्वव्यापी फलक सहज रूप में उपलब्ध हुआ है. आशा है- हिंदी जनवाणी के रूप में विश्व पटल पर अपनी दस्तक मजबूती के साथ देगी.
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाओं के साथ…
सुरेश यादव

क्या होती है गरीबी

आग जिनके पेट में होती है
चूल्हे जिनके ठंडे होते हैं

छतें जो डालते हैं सारे दिन
खुले आसमान के नीचे सोते हैं

सड़कें जो बनाते हैं
चमचमाती कारों के लिए
बहुत मुश्किल से कुचलने से बचते हैं

फसलें उगाते हैं - देह जोत कर
और भूखे सो जाते हैं

अमीर लोग जब
अपनी रातों को सजा कर रखते हैं
गरीब अपनी लाल डोरे वाली आँखों में
रातों को जगाकर रखते हैं

ऊँचे, बहुत ऊँचे घरों की रोशनी
जब-जब उदास लगती है
नीची बहुत नीची ज़मीन से
ऊँची आवाज़ में गरीब गाते हैं

गरीबी
बाज़ार में मुंह बांध कर जाती हुई मिलती है
ख़ाली जेब मिलती है मेले में

गुब्बारे के साथ
फूलती और फूटती है
समय के झूलों में
गरीबी - पेंडुलम सी झूलती है !
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हुई कहाँ पर भूल

आओ मिल कर बैठें
सोचें - भुला सभी मतभेद
अपनी गलती करें कबूल
हुई कहाँ पर भूल !

आमों के हमने पेड़ लगाये
सींचे हमने आम
जाती निगाह जहाँ तलक
पाए खड़े बबूल

मंदिर हैं पग-पग पर
मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरिजाघर हैं
आस्थाएं गहरी धर्मग्रंथों पर हैं
घायल फिर भी परम्पराएँ
मर्यादाएं गईं कलंक पर झूल

गुंडों की हर गर्दन मोटी है
छोटे पड़ते कानून के फंदे
आंधी सभ्यता की इस तरह चली
टूट गए सभी उसूल

राष्ट्र एकता के स्वर दबे-दबे हैं
आधार ज्ञान के सहमे-सहमे
भेदभाव के निर्लज्ज सवालों को
क्यों मिलाता इतना तूल

हंसी ख़ुशी सब काँटों के हिस्से
चुभने का जिनके अहसासों में दर्प
बहुत उदास हैं क्यों ख़ुशबू वाले फ़ूल।
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