रविवार, 7 नवंबर 2010

कविता

अपनी बात
हम सभी सृष्टि की विराट पाठशाला में दाख़िला पा चुके हैं। यह अहसास यदि हमें शिक्षार्थी और जिज्ञासु बनाता है तो यह किसी वरदान से कम नहीं है। प्रकृति का हर पाठ हम शिक्षार्थियों की समझ और संवेदना पर निर्भर करता है कि उसे किस रूप में ग्रहण करें। इस विराट पाठशाला का हर एक रूप अपने में सम्पूर्ण, विलक्षण, बहु-आयामी और सृजन को जन्म देने वाला है, इसीलिए अनुकरणीय है। अनुकरण के इन पथों पर हम अपने अस्तित्व के बिखरे ताने-बाने चुन सकते हैं और जीवन की बुनावट में नन्हीं-सी पहल का आनंद प्राप्त कर सकते हैं। कविता, इसी आनंद की खोज की एक प्रक्रिया बन सके तो यह उसकी सार्थकता है और धड़कते हुए जीवन का साथ देने का ऐलान भी है।
मैं अपनी दो कविताओं को इन शब्दों से पूरी तरह मुक्त कर आप को समर्पित कर रहा हूँ। आशा करता हूँ, आप की टिप्पणी और आप के विचार अवश्य प्राप्त होंगे।

पत्थर और नदी -1
पहाड़ों के पत्थर
जब ऊँचाइयों से टूटते हैं
तब - पत्थर बहुत 'टूटते ' हैं
डूब कर भी नदी में
बहना चाहते नहीं
धार से जूझते हैं

विरोध करते हैं - पत्थर
सागर में समर्पित होने का
नदी के साथ

रेशा-रेशा घिस कर
तलहटी में बिछ कर
जकड़ कर धरती को
समर्पित होने से पहले
रेत होना बेहतर समझते हैं।

पत्थर और नदी -2
पत्थर
सीख लेते जब नदी से
दर्प को छोड़ना

नदी के आगोश में आकर जब
भूल जाते
अपने ही दर्प में टूटना

चाहते हैं जब
नदी की धार से खेलना
नदी के साथ बहना

पानी की नर्म उँगलियों का
नर्म स्पर्श पाकर
सम्मान में बिछने लगते हैं
सच में -
श्रृद्धा के मार्ग पर चलने लगते हैं

धीरे-धीरे
पत्थर
शिवलिंग बनने लगते हैं

जल के अर्ध्य फिर
उन पर
श्रृद्धा से चढने लगते हैं।