मंगलवार, 18 मई 2010

अपनी बात

मेरी ये दोनों कवितायें 'प्यासे पत्थर' और 'अच्छा आदमी' पच्चीस वर्ष से कम पुरानी नहीं हैं. आज मैं जब यह पोस्ट प्रकाशित करने लगा तो सबसे आगे आकर खड़ी हो गई -पूरे उत्साह के साथ. मुझे लगता है कि समय के साथ जिन्दा रहने की जैसी ललक मनुष्य में होती है - कविताओं तथा साहित्य की अन्य विधाओं में भी होती है. कवितायें मृतप्राय पन्नों पर सोती नहीं हैं, निरंतर समय के साथ अनुभव ग्रहण करती हैं. इस अनुभव की अभिव्यक्ति अपने समय का आदमी या कोई भी पाठक अपनी अनुभूतिपरक व्याख्या से करता है. निरंतर चलती यह प्रक्रिया रचनाकार और रचना के बीच वह रिश्ता है जो एक दुसरे को गढ़ता है. पाठक इसका सर्वाधिक विश्वसनीय गवाह होता है. मैं ऐसे ही सुधी पाठकों के बीच अपनी कविताओं को रख कर दूर हटता हूँ … बेवाक और सच्ची प्रतिक्रिया की उत्सुकता के साथ.
-सुरेश यादव


प्यासे पत्थर

बचपन में
पढ़ी और सुनी थी
प्यासे कौवे की कहानी
जिसने
अधभरे घड़े में
डाले थे कंकर -पत्थर
फिर -
मुहाने तक भर आये पानी को
पिया था जी भर कर

चाहतों के अधभरे घड़े में डाले
मैंने भी
श्रम और वक्त के न जाने कितने पत्थर

पानी का इंतजार किया मेरे भी होठों ने

मुहाने तक आये, लेकिन -चीखते पत्थर
प्यासे थे बहुत जो
और उनमें थी पी जाने की गहरी ललक
खुद मुझको ही - घूंट घूंट कर ।

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अच्छा आदमी

तुमने मुझे अच्छा आदमी कहा
मैं, काँप गया
हिलती हुई पत्ती पर
थरथराती
ओस की बूँद-सा !

तुमने
मुझे 'अच्छा आदमी' कहा
मैं सिहर उठा
डाल से टूटे
कोट में टंक रहे उस फूल-सा,
जो किसी को अच्छा लगा था।

'अच्छा आदमी' फिर कहा,
तुमने मुझे
और मैं भयभीत हो गया हूँ
भेड़ियों के बीच मेमने-सा
जंगल में जैसे घिर गया हूँ।

'अच्छा आदमी' जब-जब कोई कहता है
बहुत डर लगता है।
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